Wednesday, 18 April 2018

पुष्प की अभिलाषा


पुष्प की अभिलाषा

चाह  नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं
चाह  नहीं, प्रेमी - माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह  नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि , डाला जाऊं
चाह  नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पर जावें वीर अनेक !!

- माखनलाल चतुर्वेदी

After re-reading this all-time great poem which I first read while I was
school-going, I thought there must be more that the ‘pushp’ can sacrifice
for the soldier.

Here is the result - 
चाह यही है

नहीं देखेंगी मुझे आँखे, जो दुश्मन को तरसे ,
धन्य होगा जीवन, कुचल सैनिक पैरों से !
गुजर जायेगा काफिला - देश उनके भरोसे ,
फिर देना तुम मुझे उड़ा, वायु के परों से !

कहीं पटके वायु मुझे - गाड़ी , रेल या नॉव ,
बस पहुँचाना मुझे, उस सैनिक के गाँव !
गिरे ताजे फूलों बीच, ठंडी ठंडी छाँव ,
जहाँ सैनिक पत्नी रखे, सुबह अपने पाँव !

 बीन कर ताजे फूलों से, जब करेगी मुझे अलग ,
गंध से जरूर याद आएगा, उसे अपना सुहाग !
मेरे पति - गंध से उसकी, यादें जाएँगी सुलग ,
गिरा मुझे धरा पर वो, रोयेगी बिलख - बिलख !

सुलाना धरा पर मुझे - शांत धुला उसके आंसू से ,
जब तक वह विजयी सैनिक, ना लौटे समर से !
फिर एक बार उठाना मुझे, जैसे बन पड़े वैसे ,
और गिरना कुण्ड में जहाँ, बालाएं मेहंदी पीसे !

सहूँगा असीम पीड़ा, जब निकलेगा जीवन रस ,
पर मेरे सैनिक समान, मैं  हूँगा टस  से मस !
मेहंदी रचे हाथ, छू लें विजयी पति पाँव, जस ,
देना फेंक मेरे अवशेष, कचरे - कूड़े में बस !

अब बस बाकी रहेगी, एक आखरी चाह ,
ढूंढ़ना उस कूड़े से, सैनिक खेत की राह !

धरा में लम्बी, अंतिम नींद के बाद ,
खिलाऊँ फिर एक फूल, बन कर मैं खाद !

चाह यही है पुष्प बन कर हर जनम मैं पाऊँ ,
हर प्रकार से मैँ एक सैनिक के काम आऊं !!

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क्यों


 क्यों

एक और युवा ने इश्क में नाकामी से आत्मघात किया,
दादी, विधवा मां, बहन को समाज भरोसे छोड़ दिया !

अपने घर में शाम का चूल्हा जलने का भरोसा नहीं,
पर ठस दिल का सुनना है, विवेकी दिमाग का नहीं !

क्यों हम इस कम्बख्त इश्क को इतना मान देते हैं,
क्यों इसके लिए पैसा, समय और कभी जान देते हैं !
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